बोल कर देखें तो ‘माजुली’ शब्द ‘मझले’ के काफी करीब है। ‘मझले’ का मतलब है, कोई भी वह चीज़ जो बीच की हो या किन्ही दो चीज़ों के बीच में हो। जैसे कि ‘माजुली’, ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में एक टापू है। माजुली भारत का सबसे बड़ा नदी-टापू है। इसका अपना नाम ही इसकी भौतिक स्तिथि साफ बतलाता है।
आप असम के नक्शे पर देखेंगे, तो माजुली द्वीप के दक्षिण में आपको ब्रह्मपुत्र नदी और उत्तर में खेरकुटिया खूटी नाम की धारा दिखेगी। खेरकुटिया खूटी ब्रह्मपुत्र नदी से निकलती है और आगे चलकर फिर उसी में मिल जाती है। इसी तरह एक और सहायक नदी लोहित भी है। माजुली के बनने के पीछे इन्हीं का हाथ है – इन नदियों के दिशा बदलने से मिट्टी ब्रह्मपुत्र के बीच में जमा हो गई और धीरे-धीरे टीले ने टापू की शक्ल ले ली। नदियों के बहाव में होने वाले परिवर्तन की वजह से माजुली का चेहरा मानचित्र पर हमेशा ही बदलता रहा है। ब्रह्मपुत्र नदी यहाँ जीवन के अस्तित्व का कारण है, परन्तु माजुली को सबसे ज्यादा नुकसान भी यही पहुँचाती है। इसलिए, माजुली और यहाँ का जीवन बहुत मायनों में भिन्न और कल्पना से परे है।
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माजुली में रहने वाले लोगों और उनकी अद्भुत जीवन शैली की वजह से इसे असम की ‘सांस्कृतिक राजधानी’ भी कहते हैं। लोग बड़े सरल हैं, परस्पर प्रकृति के साथ कदम मिला कर चलते हैं। इन्होंने अपने इतिहास, अपनी सभ्यता और जीने के अंदाज़ को भी बड़े तरीके से संवार के रखा है। जियोग्राफ़िकली और सोशली, दोनों ही तरीकों से यह जगह आपको एक अलग दुनिया में होने का एहसास कराती है। एक ऐसी दुनिया जहाँ से सारी बाहरी दुनिया दूर और कटी हुई दिखती है। दिखने में माजुली मानचित्र पर छोटा है, उसके उलट अंदर से उतनी ही बड़ी दुनिया है यहाँ की। आप झाकेंगे तो यह आपको भी समेट लेगी।
हमारा माजुली पहुँचाना – हमने अपनी नार्थईस्ट ट्रिप की शुरुआत माजुली से ही की थी!
दिल्ली से गुवाहाटी हम फ्लाइट लेकर पहुँचे और पहली रात वहीं रुके। अगले दिन सुबह 6 बजे, ट्रिप की शुरूआत करते हुए, हम अपनी गाड़ी से माजुली के लिए निकल गए। रास्ता एकदम सीधा है — सड़क ब्रह्मपुत्र नदी के साथ-साथ चलती है और आपको सीधा जोरहाट टाउन पहुँचाती है। 350 किलोमीटर की दूरी है सड़क से। इसके अलावा गुवाहाटी से जोरहाट के लिए रोज़ाना ट्रेन चलती है। साथ ही, पब्लिक ट्रांसपोर्ट के साधन भी हैं। रास्ता लम्बा है, पर बहुत बहारदार है।
रास्ते में काज़ीरंगा नैशनल पार्क भी आता है, वहाँ भी एक बार रुका जा सकता है। वन और वन्य जीवन के साथ आदमी अपनी दुनिया कैसे चला सकता है, आपको माजुली पहुँचने से पहले यहीं से देखने को मिल जाएगा। सफ़र का पहला स्टॉप हमने यहीं लिया और नाश्ता-पानी किया।
माजुली के लिए एक रास्ता तेज़पुर साइड से भी है, पर वह ज्यादा लंबा है। छोटा और मेन रास्ता वही है जो जोरहाट से आता है। जोरहाट से पहले आप ब्रह्मपुत्र नदी पर बने नीमती घाट पर आते हैं — यहाँ सड़क का रास्ता ख़त्म हो जाता है और फिर नीमती घाट से माजुली पहुँचने के लिए फ़ेरी की सवारी करते हैं। फ़ेरी आपको माजुली में बने कमलाबाड़ी फ़ेरी पोईंट पर उतारेगी। 15 -20 किलोमीटर का डिस्टेन्स है जिसे पार करने में 1 से 2 घंटे का टाइम लग जाता है।
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गाड़ी हो या आदमी या फिर कोई सामान, सब का सब फ़ेरी से ही टापू पर आता है। एक जन का किराया मात्रा 10 से 20 रुपए है, पर गाडी पार ले जाने के 800 से 1000 रुपए लगते हैं। ध्यान रखने की एक बात यह है कि जोरहाट से माजुली के लिए आखरी फ़ेरी 3 बजे चलती है, अगर यह छूट जाए तो माजुली पहुँचने के फिर कीजिए अगले दिन का इंतज़ार।
माजुली से पहली नज़र मिलना और यहाँ रुकना
नॉर्थईस्ट की एक बहुत ख़ास बात यह है कि यहाँ सूरज सुबह बड़ी जल्दी आता है और जितनी जल्दी आता है, शाम को उतनी ही जल्दी चला भी जाता है।सूर्योदय और सूर्यास्त का समय बड़ा जादुई होता है।
कमलाबाड़ी घाट पर उतरते ही सूरज हमें डूबता दिखा। माजुली में पहले सनसेट को कैसे छोड़ देते! कुछ देर हमने यहीं बिताया और फिर अंधेरा होने तक हम कमलाबाड़ी मार्केट पहुंचे। अब टेंट लगाने का समय नहीं था, तो रुकने के लिए हमने वहीं एक होमस्टे देखा। माजुली में रहने के लिए काफी ऑप्शन हैं; आपको सस्ते, महंगे, काम-चलाऊ सभी किस्म के होमस्टे, होटल और रिसॉर्ट मिल जाएंगे। यहाँ पहुंचकर असामी थाली तो बिलकुल खाना न भूलें , इसके बिना आपका असम घूमना अधूरा है।
अगले दिन बारी थी माजुली देखने की. सुबह तड़के से ही हमने यहाँ चक्कर लगाना शुरू कर दिया।
माजुली के लोगों से मिलना
बात आप किसी जगह की करें या इंसान की, आप एक बार में किसी को पूरी तरह नहीं जान सकते। माजुली जगह छोटी भले हो पर इसे जानने के लिए कुछ दिन का समय बिलकुल काफी नहीं। देखने, सुनने और सीखने के लिए बहुत कुछ हैं यहाँ। तो, हमारा पहला मकसद था कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से मिलें, उनके साथ बैठें और बातचीत करें। माजुली में रहने वाले लोगों में मुख्य तौर पर मिसिंग, देउरी और सोनोवाल-कछारी जाति के लोग आते हैं। 7वीं शताब्दी में बर्मा (म्यांमार) से चलकर अरुणाचल होते हुए ये लोग इधर आए थे। यहाँ रहने के बेहतर साधन मिले, तो यहीं अपना गाँव- क़सबा बना कर रहने लगे। इतिहास के हिसाब से ये लोग मंगोल प्रजाति से ताल्लुक रखते हैं। इन ट्राइब्स के अलावा कुछ और असमिया जाति-जनजातियों के लोग भी यहाँ रहते हैं, पर वे कम हैं। यहाँ मिसिंग, असामी और हिंदी भाषाएं बोली जाती हैं।
भारत के और गाँवों की तरह यहाँ के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। सौ से ज्यादा किस्म के धान/चावल की फसल बोई जाती है। हालांकि साल में बस एक बार खेती होती है क्योंकि गर्मियों में तो सब पानी से पटा होता है। इसके अलावा, मछली पालन, नाव बनाना, शिल्पकारी और मिट्टी के बर्तन व मुखोटे बनाना भी यहाँ के लोगों को अच्छे से आता है। नदी के किनारे बसे होने के कारण ये लोग पैदाइशी तैराक और मछुवारे होते हैं। मिसिंग औरतें माहिर शिल्पकार होती हैं और अपने कपड़े खुद बनाती हैं।
बाँस का इस्तेमाल ये लोग खाने, खाना बनाने, जलाने और घर बनाने में करते हैं। घर की दीवार, दरवाज़े और फ़र्श सभी बाँस के बने होते हैं। छत फूस की होती है। हवा और बारिश से बचाने के लिए दीवारों को मिट्टी और गोबर से लीप दिया जाता है। सभी घर ज़मीन से 3-4 फ़ीट ऊपर बाँस की बल्लियों पर टिके होते हैं ताकि अचानक आई बाढ़ से बचा जा सके। नदी के सहारे जिंदगी बसर करने में इन लोगों को महारत हासिल है। प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर कैसे चलना है, यह इनको पता है, तभी बाढ़ से होने वाली परेशानियों के बावजूद ये लोग यहाँ जीवन बसर कर रहे हैं।
मिसिंग लोगों की तरह माजुली में देउरी जनजाति के लोग भी काफ़ी हैं। देउरी लोगों को पुरोहित जाति के लोग कहकर बुलाया जाता है। इनका लाइफ़-स्टाइल मिसिंग लोगों से मिलता-जुलता है, पर इनकी अपनी अलग बोली और अलग त्योहार हैं। मिसिंग लोग ‘आली-आय-लिगांग और पोराग’ त्योहार मनाते हैं, तो देउरी लोगों का मुख्य त्योहार ‘बिहु’ है। सभी त्योहार खेती-बाड़ी से जुड़े होते हैं। त्योहारों में अच्छा नाच-गाना होता हैं। संगीत बजाने के इंस्ट्रुमेंट यह लोग खुद ही बनाते हैं।
माजुली – एक कल्चरल शो
माजुली घूमने लिए सबसे सही समय सर्दियों को ही कहा जाएगा क्योंकि इसी मौसम में बाढ़ का पानी नहीं मिलता। गर्मियों में और बरसात में तो यहाँ पर घूमना मुश्किल और खतरनाक होता है। यहाँ की असल झलक पानी हो तो फिर यहाँ के त्योहारों में शामिल होना बेहद ज़रूरी है। त्योहारों में आपको यहाँ का जीवन, संस्कृति और इन लोगों की ज़िंदादिली दिख जाएगी। अगर आप किसी त्यौहार के समय नहीं आ पाते तो कोई बात नहीं, पर जब भी आएं, यहाँ बने ‘सत्र’ देखना न भूलें। ‘सत्रों’ को आप छोटे म्यूज़ियम कह सकते हैं, इन्हें यहाँ के पूर्वजों ने स्थापित किया था। इनकी स्थापना भारत में भक्ति काल के समय श्री रामशंकर जी ने की थी। सभी सत्र मुख्य तौर पर वैष्णव भक्ति केंद्र हैं। पर साथ ही सभी केन्द्रो पर आपको संगीत, साहित्य, नाटककला, मुखौटे और मूर्तिकला से जुड़े काफी लोग मिल जाएंगे। 1950 में आए भूकम्प में बहुत से सत्र और काफ़ी गाँव माजुली से टूटकर पानी में जा मिले थे। जिसके बाद से सत्रों की संख्या केवल 22 रह गई जो कभी 64 हुआ करती थी।
माजुली में घूमते- घूमते 3 बज चुके थे और अभी देखने को बहुत कुछ बाकी था। पर, आज अँधेरा होने से पहले हमको अपने टेंट् ज़माने की जगह देखनी थी, तो हमने थोड़ी जल्दी की। कुछ एक सत्रों में समय बिताकर हम निकल लिए टेंट लगाने की जगह ढूंढने। फेरी से जहां उतरे थे, ठीक वहीँ जा पहुंचे वापस। ब्रह्मपुत्र के किनारे टेंट जमाकर रात वहीं बिताई। अगले दिन सुबह हमको माजुली से वापस निकलना था।
अलविदा माजुली
बेमिसाल और असाधारण दुनिया है माजुली की। पर अगर हम कहें कि अगले 10-15 सालों में यह जगह दुनिया के नक़्शे से ग़ायब हो जाएगी, तो क्या मानेंगे आप? हकीकत यही है! 1950 का भूकंप, माजुली के लिए आज तक का सबसे खतरनाक रहा है, इसका करीब- करीब आधा हिस्सा टूट कर बह गया। मिट्टी के कटाव के कारण माजुली का आकार और तेजी से छोटा हो रहा है। जितना आकर छोटा हो रहा है, पुरे माजुली के बह जाने का खतरा भी उतना ज्यादा बढ़ रहा है।
बहुत से लोग, संस्थाएं और सरकार इसे बचाने की कोशिश में लगे हैं। पर, माजुली को बचाने के लिए अभी तक जितने भी प्रयास किये गए हैं, कुछ ज्यादा सफल नहीं रहे। जरुरत है कि ज्यादा से ज्यादा लोग माजुली पहुँचे और लिखकर, मूवी बनाकर या किसी भी तरीके से माजुली पर मंडराते खतरे के बारे में लोगों को बताएं। सरकार और संस्थाओं के साथ-साथ लोगों का साथ ज्यादा जरुरी है, नहीं तो माजुली नक़्शे से ही गायब हो जाएगा।
अपने ऊपर बने हुए ख़तरे को जानते हुए भी माजुली के लोग यहाँ सालों से ज़िंदगी बसाए हुए हैं। यहाँ पर सिर्फ रहना मात्र किसी कला से कम नहीं। इसलिए, माजुली एक बहुत ही ख़ास जगह है और यहाँ के लोग बहुत मज़ेदार।