कोरोना के होने से पहले ही हमने क्वारंटाइन लाइफ कैसी होती है, इसका टीज़र देख लिया था. हमें तब पता नहीं था कि इसे ‘क्वारंटाइन होना’ कहेंगे। हमप्ता के बालू घेरा बेस कैंप पर पचपन घंटे बारिश में फंसने के बाद अपना झोला उठाकर वापिस मनाली के लिए निकल लिए।
15 अगस्त वाली ट्रिप
“भाईजी, सामने पहाड़ की वो चोटी देख रहे हैं, वो न जाने कितनी सदियों से यहां है! पहाड़ पार करने वाले कितने लोग आते-जाते रहे हैं, पर ये पहाड़, ये चोटियां, कहीं नहीं गई हैं. ये यहीं रहे हैं,और यहीं रहेंगे. मेरी सलाह लें तो आप अगली बार फिर आना, थोड़ा जल्दी, और कामना करके आना कि उस बार मौसम कि कृपा आप पर रहे और आप हमप्ता की यात्रा पूरी कर पाएं.” — ‘सार’ के ये भारी शब्द कहते हुए चंद्रा भाई ने हमें बालू घेरा से वापस रुख़सत किया.
यहां से अपने को सामने वो पहाड़ दिख रहा था जिसके पार जाना था. मन तो था कि बिना रुके निकल लें, शाम को सीधा लाहौल, छतरू पहुंचे और वहीं रात बिताकर अगले दिन काजा से आती पहली बस में बैठकर ही मनाली पहुंच जाएंगे। पर अपने साथ दो पंटर और थे, उनको ये प्लान थोड़ा कम सूट करता। इस करके हमने यहीं रुकने का मन बना लिया और अपना टेंट यहीं रॉकी भाईजी की दूकान के करीब गाड़ दिए. अब इंतज़ार बस अगली सुबह का था, और फिर अपन लोग हमप्ता के उस पार होंगे।
पढ़िए 15 अगस्त वाली ट्रिप पर वशिष्ठ मनाली हमप्ता पास के रस्ते हमने आज़ादी का जश्न कैसे मनाया!
देखो रास्ता तो वही लोग खोज सकते हैं जो भटके हैं , जिनको भटकने की खबर नहीं उनको मंज़िल से क्या! पिछले दिन मनाली के चक्कर में हम लोग जादुई बालकनी से नीचे उतर आए. नीचे उतर कर भी नज़ारे कम नहीं थे हमारे लिए. ब्यास नदी के किनारे-किनारे वशिष्ठ से मनाली का एक गोल चक्कर लगाया. कसम से ऐसी किसी शाम, शान्ति से मनाली शहर का चककर लगाना भी मन के सुकून के लिए बहुत है. ऐसा नहीं है कि हमारी ही बात आख़िरी है, पर तब भी नज़ारा तो देखो जनाब! दिन भर हल्की-हल्की बूंदा-बांदी के बाद मौसम […]
सुबह की शुरुआत तो हमारी जादुई ही होती थी; सामने रोहतांग और नीचे सोलांग-मनाली। पर मनाली में एक ही जगह बैठकर चिल्ल करते हमें दो दिन हो चुके थे. अब हमारे पैरों में खुजली मचने लगी थी.
जो हम वशिष्ठ मनाली में कर रहे थे, इसी को हम असल में चिल्ल करना कहते है. अगर जिंदगी का नाम घूमते-रहना है, तो इसे जीने का मतलब और स्वाद तो खाने में ही है. खाना जशन है जिंदगी का. पर हम कितना चिल्ल कर सकते हैं, कितना जशन मना सकते हैं, यह तो हमें खुद नहीं पता था!
घूमने का नाम है जिंदगी और जिंदगी जीने का नाम है खाना! इसी चिल्ल के चलते मनाली ट्रिप पर दावते इश्क़ चल रहा था एंड वी वर हाई ऑन फ़ूड.
पहाड़ सुकून हैं कि जूनून, यह जानने हम मनाली से आगे निकल लिए! भाईलोग, बात सीधी-सी है, हम से एक जगह ज्यादा देर नहीं टिका जाता. पहाड़ों में आकर तो खासकर ऐसा होता है. वैसे भी, पहाड़ों में घूमने से कब किसका दिल भरा है. Lagom स्टे से हमारी 15 अगस्त वाली ट्रिप की शुरुआत एकदम लक्ज़री हुई. पिछली रात क्या स्वादिष्ट फिश और मटन बनाया था, साथ में बारिश, बातें और लिटिल-लिटिल पेग, सुरूर बनाने वाले, मज़ा ही आ गया। सुबह उठते ही फिर वो बादलों वाला सीन, जिसने हमारा दिमाग फिरा दिया। तड़के तड़के हम थोड़ा जगतसुख एक्स्प्लोर करने […]
ट्रिप की प्लानिंग स्टेज में ही हमारी शुरुआत सर्प्राइज़ के साथ हुई। अभी तो पहाड़ पहुंचे ही थे। हफ़्ते भर की यात्रा तो अभी होनी थी, और एक हफ़्ते की ट्रिप में कितने ‘सर्प्राइज़’ हो सकते हैं — हम फिर कह रहे हैं, आपको, हमको, किसी को नहीं पता। हफ़्ते का ट्रैवल आपको बहुत कुछ दिखा सकता है। पढ़िए, ट्रिप मनाली कैसे पहुँच गई? पार्ट 3 पढ़िए!
ट्रिप की प्लानिंग स्टेज में ही हमारी शुरुआत सर्प्राइज़ के साथ हुई। अभी तो पहाड़ पहुंचे ही थे। हफ़्ते भर की यात्रा तो अभी होनी थी, और एक हफ़्ते की ट्रिप में कितने ‘सर्प्राइज़’ हो सकते हैं — हम फिर कह रहे हैं, आपको, हमको, किसी को नहीं पता। हफ़्ते का ट्रैवल आपको बहुत कुछ दिखा सकता है। पढ़िए, ट्रिप मनाली कैसे पहुँच गई?
ट्रिप से हफ़्ते भर सब दिल्ली वाले ठिकाने पर मिलते हैं। ट्रिप पर निकलने से पहले काग़ज़ों पर ठप्पा लगे, उससे पहले, आकस्मिक ही, नया राग अल्पा जाता है।
ओली — “अबे गुरेज़ वैली चलते हैं, इंडिया पाकिस्तान बॉर्डर पर।’”